महफिलें

रोज सजती है महफिले मयखाने मैं बदल कर,
जब चढ़ती है होठों पर हंसी प्यालो में भरकर।

आंखों में एक लाली सी भर जाती है,
जब लबों से गले में ये घूंट- घूंट उतर जाती है।

सारी परेशानियों को पल भर में दूर करती है,
महफिलों को रंगीन बना कर अपने में ही मगरूर रखती है।

फसलों को कम करने का वहम ये भरती है,
हकीकत में ये फसलों को तय करती है।

रूप बदल बदल कर बड़ा ही इतराती है,
महफिलों को मयखाने में जब-जब बदल जाती है।

कहानी आंखों से यह चुपचाप बह जाती है,
जब-जब महफिलों में ये रोज सज जाती है।

ⒸVineeta

Comments

  1. Really nice to see and read your Blog Vineeta Ji. Reading a blog after so many months makes me feel to write again. I too have a blog and write unsaid stories. Keep the spirit up. Best wishes...

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